आरती संग्रह
आरती - महत्वपूर्ण जानकारी
आरती एक धार्मिक अनुष्ठान है जो देवी-देवताओं की पूजा के दौरान किया जाता है। आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में उसे चार- बार घुमाएँ, दो बार नाभिदेश में, एक बार मुखमण्डल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाएँ।
आदौ चतुः पादतले च विष्णो द्वौ नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम् । सर्वेषु चांङ्गषुच सप्तवारा - नीरत्रिंक भक्तजनस्तु कुर्यात ।।
यथार्थ में आरती पूजन के अंत में इष्टदेवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें इष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ साथ उनका स्तवन और गुणगान किया जाता है। आरती के भाव निरांजन और आरात्रिक / आरार्तिक शब्द से व्यक्त होते है।पूजा के अन्त में आरती की जाती है। पूजन में जो त्रुटि रह जाती है, आरती से उसकी पूर्ति होती है।
स्कन्दपुराण में कहा गया हैं :-
मंत्रहीन क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरेः । सर्व सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे ।।
अर्थः पूजन मन्त्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी आरती कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है। आरती करने की ही नहीं, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है।
हरिभक्तिविलास में कहा गया है :-
नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिणः । सप्तजन्मनि विप्रः स्यान्ते च परमं पदमं ।।
अर्थः जो चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती (सदा) देखता है वह सात जन्मों तक ब्राह्मण होकर अन्त में परम पद को प्राप्त होता है।
धूपं चारात्रिक पश्येत् कराभ्या च प्रवन्दते । कलकोटिं समुध्दत्यु यति विष्णोः परं पदम् ।।
अर्थ : जो धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उध्दार करता है और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।
आरती में पहले मूलमन्त्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिए और ढोल, नगाड़े, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों के तथा जयजयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में घृत से या कपूर से विषम संख्या की अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिए।
ततश्च मूलमंत्रेण दत्वा पुष्पाञ्जलित्रयम् । महानीराजनं कुर्यान्तमहावाद्या जयस्वनैः ।।
प्रज्वलयेत् तदर्थ च कर्पूरेण घृतेन वा ।। आरात्रिकं शुभे पात्र विषमानेकवार्तिकम् ।। एक, पाँच, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है।
साधारणतः पंचप्रदीप - पाँच बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है।
पद्मपुराण मे कहा गया है :-
कुंकमागुकपुर रघुतचंदननिर्मिता वर्तिकाः सप्त वा पंच कृत्वा वा दीपवर्तिकाम् ।।
कुर्यात सप्तप्रदीपेन शंखघण्टादिवाद्यके :
अर्थ : कुंकम, अगर, कपुर, धृत और चंदन की सात या पांच बत्तियाँ बनाकर अथवा दिये की (रूई और घी की) बत्तियाँ बनाकर सात बत्तियों से शंख, घंटा आदि बजाते हुए आरती करनी चाहिए।
आरती के पाँच अंग :
पंच निराजनं कुर्यात प्रथमं दीपमालया । द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धोनवाससा ।।
चूताश्वत्वादिपत्रैश्च चतुर्थ परिकीर्तितम् ।। पंचमं प्राणिपातेन सांष्टांगेन यथाविधि ।।
प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से, पाँचवे साष्टांग दण्डवत् से आरती करें।
श्री गणेश मंत्र
ॐ गं गणपतये नमः
