सुन्दरकाण्ड - दोहा 13-18
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श्री राम चरित मानस-पञ्चम सोपान सुन्दरकाण्ड
सुन्दरकाण्ड हिन्दु महाकाव्य रामायण में पाँचवीं पुस्तक है। सुन्दरकाण्ड को तुलसीदास जी ने लिखा है। इसमें भगवान हनुमान के साहसिक कार्यों को दर्शाया गया है। मूल सुन्दरकाण्ड संस्कृत में है और इसकी रचना वाल्मीकि ने की थी। वाल्मीकि पहले व्यक्ति थे जिन्होंने रामायण को लिपिबद्ध किया था। सुन्दरकाण्ड रामायण का एकमात्र अध्याय है जिसमें नायक राम नहीं हैं, बल्कि भगवान हनुमान हैं। सुंदरकांड का पाठ किसी भी दिन किया जा सकता है, लेकिन मंगलवार और शनिवार को इसका विशेष महत्व है। सुंदरकांड में हनुमान जी के महान कार्यों का वर्णन है। सुंदरकांड में हनुमान जी के बल और बुद्धि से माता सीता की खोज को विस्तार से बताया गया है। सुंदरकांड को 'सुंदर' कहा जाना न सिर्फ़ इसकी कथात्मक सुंदरता के कारण है, बल्कि यह इस कांड के भीतर छिपे गहरे आध्यात्मिक और धार्मिक संदेश को भी दर्शाता है। शुभ अवसरों पर गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड का पाठ किया जाता है। माना जाता है कि सुंदरकांड के पाठ से हनुमानजी प्रसन्न होते हैं। सुंदरकांड के पाठ से बजरंगबली की कृपा बहुत ही जल्द प्राप्त हो जाती है।


श्री राम चरित मानस-सुन्दरकाण्ड
॥ दोहा 1-6॥ ॥ दोहा 7-12॥ ॥ दोहा 13-18॥ ॥ दोहा 19-24॥ ॥ दोहा 25-30॥ ॥ दोहा 31-36॥ ॥ दोहा 37-42॥ ॥ दोहा 43-48॥ ॥ दोहा 49-54॥ ॥ दोहा 55-60॥
श्री राम चरित मानस-सुन्दरकाण्ड (दोहा 13 - दोहा 18)
॥ दोहा 13॥
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास। जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥
॥ चौपाई ॥
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मों कहुँ जलजाना॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥
सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता॥
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥
॥ दोहा 14॥
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर। अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर॥
॥ चौपाई ॥
कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥
॥ दोहा 15॥
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु। जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥
॥ चौपाई ॥
जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
रामबान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥
मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥
॥ दोहा 16॥
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल। प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥
॥ चौपाई ॥
मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥
॥ दोहा 17॥
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥
॥ चौपाई ॥
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥
सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
॥ दोहा 18॥
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥
॥ चौपाई ॥
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥